Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 35
________________ ३४ योगसार का सम्यक् अवलोकन करने पर डॉ० उपाध्ये द्वारा निर्दिष्ट उक्त तथ्य की पुष्टि हो जाती है । अतः इस प्रथम बिन्दु पर पुनः विचार करने की आवश्यकता नहीं है । अब द्वितीय बिन्दु पर विचार करना ही यहाँ अभीष्ट है । योगीन्दुदेव ने अपने ग्रन्थों की रचना तत्कालीन लोक प्रचलित अपभ्रंश भाषा में की है । अपभ्रंश भाषा, प्राकृत भाषाओं और नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है । यद्यपि अपभ्रंश शब्द का प्रयोग प्राचीन है तथापि ईसा की छठीं शताब्दी तक यह भाषा साहित्यिक भाषा के पद पर आरूढ़ हो चुकी थी । डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपभ्रंश का युग ई० ६०० से १२०० तक माना है । " अतः इतना तो निश्चित है कि योगसार की रचना छठी शताब्दी के पहले नहीं हुई है । परमात्मप्रकाश एवं योगसार के रचयिता योगीन्दुदेव के समय को लेकर विद्वानों में गम्भीर मतभेद है । भिन्न-भिन्न विद्वानों ने उनका आविर्भाव ईसा की छठीं शताब्दी से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक स्वीकार किया है । डॉ० कामताप्रसाद जैन ' योगीन्दुदेव को बारहवीं शती का विद्वान मानते हैं । डॉ० भोलाशंकर व्यास ने उन्हें ग्यारहवीं शती से पुराना स्वीकार किया है । श्री मधुसूदन मोदी ने योगीन्दु का समय १०वीं - ११वीं शती माना है । श्री राहुल सांकृत्यायन ने उनका समय १००० ई० माना है । डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री' तथा डॉ० नामवर सिंह उन्हें दशवीं शती का विद्वान मानते हैं । हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ' एवं अपभ्रंश साहित्य के मर्मज्ञ डॉ० हरिवंश कोछड़' ने भाषा के आधार पर योगीन्दु का समय आठवीं-नवीं शती स्वीकार किया है । इस प्रसंग में पं० प्रकाश हितैषी शास्त्री १. प्राकृतभाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ११५ । २. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० २६ । ३. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ३४६ । ४. अपभ्रंश पाठावली, टिप्पणी, पृ० ७७, ७८ । ( देखिए - हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ३४६, टिप्पण १ ) । ५. देखिए – अपभ्रंश साहित्य, पृ० २६८ । ६. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग २, पृ० २०८ | ७. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृ० २०० । ८. हिन्दी साहित्य, पृ० २२ । ६. अपभ्रंश साहित्य, पृ० २६८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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