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योगसार
अप्पा अप्पइ जो मुणइ, जो परभाउ चएइ।
सो पावइ सिवपुर-गमणु, जिणवरु एम भणेइ॥ सोरठा-सोरठा छन्द का लक्षण इस प्रकार है
सो सोरट्ठउ जाण, जं दोहा विपरीअ ठिअ ।
पअपअजमक वखाण, णाअराअपिंगल कहि ॥' अर्थात् सोरठा छन्द वह है जो दोहा के विपरीत स्थित हो ( तात्पर्य यह कि जिसके प्रथम चरण में ग्यारह, द्वितीय चरण में तेरह एवं तृतीय तथा चौथे चरण में क्रमशः ग्यारह और तेरह मात्राएं हों) तथा प्रत्येक चरण में यमक (तुक ) हो । यथा
धम्मु ण पढियइँ होइ, धम्मु ण पोस्था-पिच्छियई।
धम्मु ण मढिय-पएसि, धम्मु ण मत्था लुचिय॥ चौपाई-जिसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएं होती हैं, वह चौपाई है। इसके बनने में केवल द्विकल और त्रिकल का ही प्रयोग होता है। इसमें किसी निकल के बाद दो गुरु और सबसे अन्त में जगण या तगण नहीं होता है। इसे रूप चौपाई या पादाकुलक भी कहते हैं । यथाको सुसमाहि करउ को अंचउ, छोपु-अछोपु करिवि को वंचउ । हलसहि कलहु केण समाणउ, जहिँ जहिँ जोवउ तहिँ अप्पाणउ ॥" वचनिका एवं वचनिकाकार : ___ वचनिकाकार पं० पन्नालाल चौधरी द्वारा लिखी गई वचनिकाओं में से प्रस्तुत योगसार की वनिका के प्रकाशन से पूर्व तत्त्वसार की वचनिका भी प्रकाशित हो चुकी है। यह वचनिका पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित तत्त्वसार में समाविष्ट है। घचनिकाओं के प्रसंग में डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि (पं० पन्नालाल चौधरी ने ) वसुनन्दिश्रावकाचार, जिनदत्तचरित्र, तत्त्वार्थसार; यशोधरचरित, पाण्डवपुराण, भविष्यदत्तचरित्र आदि ग्रन्थों पर भी वचनिकाएँ लिखी हैं, जिनकी कुल संख्या ३५ है । १. योगसार, पद्य ३४ । २. प्राकृतपैंगलम्, भाग १, पृ० १४८ । ३. योगसार, पद्य ४७ । ४. देखिये-हिन्दी शब्दसागर, तृतीय भाग, पृ० १५६६ । ५. योगसार, पद्य ४० । ६. द्रष्टव्य, तत्त्वसार । ७. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग २, पृ० ५१ ।
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