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प्रस्तावना
निश्चय और व्यवहार : - जैन सिद्धान्त को समझने के लिये नयदृष्टि अपनाना आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना वस्तु के ययार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है। अतः यहाँ नय के प्रमुख दो भेद-निश्चयनय और व्यवहारनय के माध्यम से बतलाया गया है कि-मार्गणा और गुणस्थान व्यवहारनय से कहे गये हैं, निश्चय से तो आत्मा को जानो, क्योंकि उससे परमेष्ठी पद की प्राप्ति होती है। तीनों लोकों में ध्यान करने योग्य जिनेन्द्र भगवान् हैं और वही आत्मा हैं, ऐसा निश्चयनय से कहा गया है। व्रत, तप, संयम और शील-ये सब व्यवहारनय से कहे गये हैं। मोक्ष का कारण तो एक निश्चयनय है और वही तीनों लोकों में सारभूत है। छह द्रव्य, नव पदार्थ और सप्त तत्त्व व्यवहार से कहे गये हैं। समस्त व्यवहार को त्यागकर जो निर्मल आत्मा को जानता है, वह शीघ्र ही भवसागर से पार हो जाता है। जो सिद्ध हो गये हैं, जो सिद्ध हो रहे हैं, वे निश्चय से आत्मदर्शन से हुए हैं। चारित्र!
सम्यक्चारित्र के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि चारित्र को मोक्ष का साक्षात् कारण कहा गया है। यह चारित्र पाँच प्रकार का होता है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ।' यहाँ योगीन्दुदेव ने प्रथम चार प्रकार के चारित्र का उल्लेख किया है। उनके अनुसार राग और द्वेष—इन दो को त्यागकर 'समस्त जीव ज्ञानमय हैं' इस प्रकार जो समभाव का अनुभव होता है, वह सामायिकचारित्र है । हिंसादिक का परित्याग कर उपयोग को आत्मा में लगाना द्वितीय छेदोपस्थापनाचारित्र है। मिथ्यात्दादिक के परिहार से जो सम्यग्दर्शन की शुद्धि होती है, वह परिहारविशुद्धिचारित्र है । सूक्ष्म लोभ का नाश होने से परिणामों का सूक्ष्म होना सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। जिसमें किसी भी कषाय का उदय न होकर या तो वह उपशान्त रहता है या क्षीण, वह यथाख्यातचारित्र है ।
इस प्रकार उपर्युक्त पांच प्रकार का चारित्र आत्मा की स्थिरता में प्रमुख कारण है।
१. तत्त्वार्थसूत्र, ६/१८ । २. वही, ६/१८ ।
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