Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 25
________________ योगसार सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र के स्वरूप का विवेचन किया है। हमने इस दोहे का हिन्दी अनुवाद करते समय मूल लेखक की भावना का अनुसरण किया है। ३. दोहा अनुक्रमाङ्क ७२ में वचनिका का अनुसरण करते हुए 'परिच्चहिं का हिन्दी अनुवाद संचय किया है । परिशिष्ट-ग्रन्थ के अन्त में पद्यानुक्रमणिका दी है तथा मूल एवं वचनिकागत पारिभाषिक शब्दों को अकारादि क्रम से शब्दानुक्रमणिका के अन्तर्गत रखा है। आध्यात्मिक विकास-क्रम : कर्मों से लिप्त संसारी जीव किसी सुयोग को प्राप्त करके कर्मों का नाश कर अन्त में मुक्ति को प्राप्त होता है, यह भारतीय चिन्तन-परम्परा है । इसे जैनदर्शन में गुणस्थानों के रूप में विकसित किया गया है। गुणस्थानों की संख्या चौदह कही गयी है। सुविधा की दृष्टि से हम इन्हें आत्म-विकास के चौदह सोपान भी कह सकते हैं। ____ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के तीन भेद कहे हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। आत्मा के इन्हीं तीन भेदों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ योगसार में योगीन्दुदेव ने किया है। पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानों में से जीव की चौथे गुणस्थान से पूर्व की स्थिति बहिरात्मा है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक की स्थिति अन्तरात्मा है। उसके बाद तेरहवें गुणस्थान की स्थिति सदेह परमात्मा है। इस प्रकार जीव बहिरात्मा से अन्तरात्मा की ओर उन्मुख होता हुआ चौदहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके परमात्म पद को प्राप्त होता है। जीव के आध्यात्मिक-विकास की यही चरम अवस्था है। इसी परम्परा को परवर्ती आचार्यों ने 'योग' के नाम से विकसित किया है। जैनदर्शन प्रारम्भ से ही अध्यात्मवादी रहा है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अध्यात्म की जो सरिता प्रवाहित हुई है, उसका प्रभाव परवर्ती साहित्य पर स्पष्ट दृष्टिगोचर तो होता ही है, साथ ही स्वतंत्र रूप से उस पर चिन्तन और मनन की प्रक्रिया का भी विकास हुआ है, जो अध्यात्म के अविरल प्रवाह को प्रमाणित करता है। इस परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द (ईसा की प्रथम शताब्दी) के पश्चात् आचार्य पूज्यपाद ( ईसा की पाँचवीं शती ) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये दोनों आचार्य योगीन्दुदेव से पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि उक्त आचार्यद्वय का प्रभाव योगीन्दुदेव के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । योगीन्दुदेव के पश्चात् इस परम्परा को विकसित करने वालों में आचार्य हरिभद्रसूरि ( ईसा की आठवीं-नवमीं शती ), आचार्य गुणभद्र ( नवमीं ई० ); Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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