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विहरमान जिनवीसी ३१ ॥ श्री युगमंधर जिनस्तवन ।
ढाल-नाटकियानी बीजा जिनवर वंदियइ, युगमंघर स्वामी लो अहो युग० । मई तउ सेवा जेहनी, बहु पुण्ये पामी लो अहो बहु० ।। अध्यातम भावई रह्यौ, मुझ अन्तरजामी लो अहो मुझ० । ललि ललि लागु पाउले, युगतइ शिरनामी लो अहो युगते०॥१॥ शान्त थई अंतर गुणे, दुसमन सहु दमिया लो अहो दु० । दान्त पणइ अविकार थी, विषयादिक वमिया लो अहो वि०॥ निर्धन पणि परमेश्वरु, त्रिभुवन जन नमिया लो अहो त्रि० । ए अचरिज प्रभु गुण तणउ, शिव सुख मन रमिया लो अहो शि० रूप अधिक रलियामणो सो वन वन काया लो अहो ओ०। शत्रु मित्र समता धरइ, सम रंक नइ राया लो अहो स० ।। राग न रीस न जेहनइ,
मद मदन न माया लो अहो म० । सोहग सुन्दर ना गुणइ,
भवियां मन भाया लो अहो भ० ॥३॥ सज्जन जन मन रीझवइ,
नीराग सभावई लो अहो नी । विषय विभाव थी वेगलउ,
सहु विषय दिखावइ लो अहो स० ॥ सकल गुणाश्रय निज भज्यउ,
निर्गुणता ल्यावइ लो अहो नि ।।
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