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विहरमान जिनवीसी
४१ मिथ्यामत रज दूर मिटावइ, प्रगटइ सुरुचि सुगंध। अरुचि परुषता प्रगट न होवइ, करुणा रस श्रवइ सुबंध ॥३ सो०॥ चन्द्रानन आनन उपमानइ, हीणउ खीणउ चंद्र। शून्य ठाम सेवइ ते अहनिसि, मानु कलंकित मंद ॥४ सो०। श्री वाल्मीक नृपति कुल भूषण, पद्मावती नौ नन्द । वृषभ लंछन कंचन तनु प्रणमइ, प्रमुदित कवि 'विनयचन्द्र' ।।५।।
॥ श्री चन्द्राबाहु जिनस्तवन ।। ढाल-त्रिभुवन तारण तीरथ पास चितामणि रे कि पा. चन्द्रबाहु जिनराज उमाह धरि घणउ रे । उमाह । दास तणा दोय वयण निजर करिनइ सुणउ रे । नि० । जनम सम्बन्धी वैर विरोध ते उपसमइ रे। वि० । समवशरण तुम देख पंखी सबला भमइ रे॥ ५० ॥१॥ छय मृतु आवी पाय सेवइ प्रभु तुम तणा रे । से० । आप आपणी करइ भेट कि पुण्य प्रकर घणा रे कि । नीप कदम्ब नइ केतकि, जूहि मालती जू रे कि । जू० । बिउलसिरि वासंत कि जातिलता छती रे कि ॥जा० ॥२॥ शतदल कमल विशाल कि करणी केतकी रे । कि क० । बन्धु जीवना थोक अशोक सुबंधु की रे । अ० । सप्तपर्ण प्रियंगु सरेसड़ मोगरा रे । स० । लाल गुलाल सरल चंपक परिमल धरा रे ॥ स० ॥३॥
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