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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
॥ दूहा ॥ ते रात्रैचर अति विटल, विकल वदन विकराल ; विषम वचन मुख बोलतो, रूठो जाणि कराल ; १ सहस्र लहन, राक्षस पर पूठि ; साँकन राखै केहनी, दूरि किया जिण दूठ ; पिण भूखौ ते स्युँ करें, आव्यौ अवसरि देखि ; माँस भखेवा उलस्यौ, माणस नौ सुविशेष; ३ वलि काढतो जीभ ते, लोक डरावै सर्व्व; कर झाले करवाल इक धरि मन माँहे गर्व ; ३ वचने करि सहु नै कहै, किहाँ जास्यौ रे आज, इम कहतो आव्यो कन्है, करतो अधिक अगाज ; ५ ढाल (६) तारि करतार संसार सागर थकी, एहनी कोप करि लोक तिण पकड़ि कबजे किया,
विगर घर बार हूवा वियोगी,
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नासताँ भूइ भारी पड़ी त्याँ नरों,
सबल पार्नै पड्या थया सोगी १ को ०
केर झाल्या जकड़ि पकड़ि नै काख में,
या ई करथी सदावे;
तेम चाँप्या पग हेठि पापी तौ
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एण अवसर कवण केड़ि आवै ; २ को ०
अतुल बल फोरि करजोर हिव आपणौ,
कुमर ति ठौर भरडाक आयौ ;
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