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विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि
॥ दूहा ॥ तिहां कणि तीजी भूमि परि, बैठी एक ज नारि ; अति बूढी वलि खीण तन, दीठी तेह कुमार ; १ मुख नहीं खिण दाँत विण, मुख माखी विणकार ; केश पणि चक्षु मांजरी, कूबजा नै आकार ; देखी कुमर भणी निकट, इम जंप सुविचार ; काइ मरैरे आयु विण, रे गुणहीन गमार ; ३ राक्षस त नवि सांभल्यौ, भ्रमरकेत इण नाम ; निज घर तजि आयौ इहां, कोइ नहीं स्युं काम ; ४ कुमर कहै रे डोकरी, ते जोरावर दीठ; एक धकै मास्यो गुर्डे, पड़े स ऊठै नीठ; ५ पण ए गृह छै केनौ, केण करायौ कूप ; वलितुं वृद्धा कवण छै, ते सहु दाखि सरूप; ६
ढाल (११)
जिनवर सुं मेरो मन लीनौ, एहनी
सुणिपंथी एक बात हमारी, वृद्धा तँ पूछयो ते ऊत्तर देवा, मुझ मन राक्षसद्वीप इहां थी नैड़ो, जिहाँ राज करै तेहनो राक्षसपति, भ्रमरकेतु निसंक रे ; २ सु० अति वल्लभ तेहने पुत्री इक, जास मदालसा नाम रे ; रूप कर जीती जाणै रति, अपछर जिम अभिराम रे ; ३ सु०
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कहै मन लाई रे ;
हरषित थाई रे ; १ सु० नगरी है लंक रे;
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