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१५२ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि प्रवहमान उछलित वेलि वसि, पार जलधि नो पायो ; पुण्यादिक अनुभाव कुमर नो, जलचर निमित्त कहायौ ; ३ पा० तिहाँ मच्छ नै अभिलाष संचरै, धीवर सायर कूलै ; तसु हग बंधन थयौ माछलो, जल प्रायक विण शूलै ; ४ पा० माया जाल सहु नै सरिखौ, ते सहु कोई जाणै ; अंतःकरण तजै मीनादिक, द्रव्य जाल अहिनाणै ; ५ पा० खिण इक मां ते पकड़ि विणास्यो, तीखण कठिन कुड़ाईं; याहस आचरणादिक तादृश, फल तेहनै न गमाडै ; ६ पा० तेहना उदर थकी नीकलियौ, उत्तमकुमर सवाई ; रंच मात्र पिण घाव न लागौ, ए जोवौ अधिकाई ; ७ पा० सगला धीवर अचरज पाम्या, एस्यु थयौ तमासौ; कुमर कहै रे मूढ़ गमारां, इण बाते स्यौ हाँसौ ; ८ पा० सदा आपदा पडै पुरुष मां, तम ने साचौ भाखु; घण घाते हुँ नवि भेदाणो, तो डर केहनो राखं; 8 पा० धीरवंत कुमर ने निरखी, धीवर पाइ लागा ; स्वामी पणै थाप्यौ सहु मिलने, जस ना वाजत्र वागा; १० पा० रहै कुमार तिहाँ सुख सेती, फल साधन ए राखै ; जेह वृत्त जिन पक्ष बाधक, तेह कदापि नविभाखै ; ११ पा० मिथ्यादृष्टि तणो उत्थापक, व्यक्त गुणे सुविलासी ; वलि विरक्त मोहादिक भावै, एक युक्ति अभ्यासी ; १२ पा० ढाल थई बीजै अधिकारै, तुरत पांचमी पूरी ; विनयचन्द्र आगलि ते कुमरी, बिहुं ढालां में झरी ; १३ पा०
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