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श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपई पुण्य थी शत्रुदल तेह आई नडै
पुण्य थी शिवसुख तुरत लीजै; १४ को० सुजस वाध्यो घणो कुमर उत्तम तणौ
___ कीयो उपगार तिण विण निहोर ढाल छट्ठी विनयचन्द्र इण परि भणे
उत्तस्या वादला वाय जोरै ; १५ को०
॥हा॥ आवै कुमर तिहां थकी, सायर तट मन रंग ; मनुष्य मात्र दीसै नहीं, तुरत कीयौ मन भंग ; १ सहु नै राख्या जीवता, मैं कीधो उपगार ; तो पिण मुझनै अवसरै, मूंकि गया निरधार ; २ . लाज विहूणा लोकए, नीच निगुण निसनेह : आप सवारथ साधिनै, निश्चय दीधो छेह ; ३ वहिला खेड़ जिहाज नै, मुझ सु खेली घात ; तो काइक दीसै अछे, वखत लिखतनी वात ; ४ मै तो कीधी मो दिसा, जेह भलाई आज ; जो न गिणी तो तेहनै, पूछेसी महाराज ; ५
ढाल ७ इण रित मोनै पासजी सांभरै, एहनी वलि मन मांहे चीतवै सखी, ते तो लोक विनीत ; राक्षस आगलि स्यु करै सखी, मन मां सबली भीति रे ; किण परि राखै मुझ चीत रे, भय मरण तणो विपरीतिरे ; तिहां दूरि रही ते प्रीति रे, पछै सहु को नी रीति रे ; १
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