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१२६ विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि परस्त्री हुँ रमवा नेम रे, तब चिंतइ अपछर एम रे एतौ नवि राखै मुझ प्रेम रे, निहुरो करीये कहो केम रे ।।१२ ३०॥ निश्चल मन कुमर कीयौ सखी, न पड्यो माया जाल ; टेक ग्रही ते नवि तजी सखी, वचन तणो प्रतिपाल रे ; कंठ ठवि शीलनी माल रे, सहु दूर मिट्यौ जंजाल रे; एतलै ए सातमी ढाल रे, कहै विनयचन्द्र चौसाल रे॥१३ ३०।।
॥ दूहा॥ देवी इण परि वीनवै, रीस करी जे काय ;
ओछो अधिको जे कह्यो, खमज्यो तुं महाराय : ।।१।। एकण जीभई ताहरा, गुण मोहँ न कहाय ; ताहरै नामै जनम ना, पातक दूर पुलाय ।।२।। जे बोल्या दशवीस तें, अमीय समाणा बोल ; हितकारी सहुनै अछै, पिण हुँ निटुल निटोल ॥३॥ हाव भाव विभ्रम कीया, वलि तिमहीज विलाप ; तो पिण ते तिलमात्र इक, नाण्यो मन संताप ||४|| सील लील राखण भणी, तजिवा मांडी देह ; पिण परनारी जाणि नै, न कीयौ विषय सनेह ।।५।। ढाल-८ मृगनयणी राधाजी रे कंत कहा रति माणि राजि ए देशी न दीयौ छेह नेह धरि गाढौ, धरम नी बात बखाणी राज हां ध० गति मति नै छ ति छानी रहै, नहीं वाणी अमीय समाणी राज १ अम्हे पणि जाणी राजि जाणी तु एतो मन जोवा नै माटै कुमरजी
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