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विहरमान जिनवीसी
॥ श्री देवयशा जिन स्तवनम् ।।
ढाल-काचीकली अनार की रे हां तुम्हे तउ दूर जइ वस्या रे हां,
आवी केम मिलाय । मेरे साहिबा। संदेशो पहुँचइ नहीं रे हां,
कागल पिण न लिखाय ॥ मे० ॥१॥ पिण अनन्त ज्ञानी अछउ रे हां,
जाणउ मन ना भाव । मे०॥ हेज धरी मुझ नई मिलौ रे हां,
जिम होइ प्रीति जमाउ ।। मे० ॥२॥ अनुकम्पा करि नइ करउ रे हां,
समकित नउ निरधार । मे० । तुम्ह बिन अवर न को अछइ रे हां,
___ जीवित प्राण आधार ।। मे० ॥ ३ ॥ जाणी नई नवि पूरता रे हां,
सेवक केरी आश । मे०। तउ साहिब शी बात ना रे हां,
हुँ पिण स्यानउ दास ॥ मे० ॥४॥ सर्वभूत नृप नन्दनौ रे हां,
गंगा मात मल्हार । मे० । देवयशा शशि लन्छने रे हां,
'विनयचन्द्र' सुखकार ॥ मे० ॥ ५॥
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