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श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् हुं भव भव भमतौ हार्यो, बहु दिवसे तुझ सम्भार्यो रे। तुझ सेवा करिवी मांडी, ते किम जायइ कहौ छांडी रे ॥६॥ पूरबली प्रीति जगाई, हिवइ करौ निवाज सकाई रे। जे मांहि दत्त गुण लहियइ, मोटा तउ तेहिज कहीयइ रे ।।७।। तूं अध्यातम मत वेदी, तई कर्मप्रकृति सहु छेदी रे। संसार तरी तु बइठउ, शिवमन्दिर मां जइ पश्ठउ रे ।।८।। आजन्म तु बालउ योगी, तुं अनुभव रस नउ भोगी रे । तुतउ छइ निपट निरागी, हुं रागी तुझ रह्यउ लागी रे ।।६।। रागी रागइ जे व्यापइ, तेहनइ जउ वंछित नापइ रे। तउ भगतवच्छल बहु प्रीतइ, तेहनइ कहियइ सी रीतइ रे ॥१०॥ अविचल सुख मुझ दीजइ, परमातम रूपी कीजइ रे। प्रभु साथ बाते आया, कवि 'विनय चन्द्र' गुण गाया रे ॥११॥
॥श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥
ढाल-सूबर दे ना गीतनी सुन्दर रूप अनूप, मूरति सोहइ हो,
सगुणा साहिब ताहरी रे। चित माहे रहै चूंप, देखण तुझ नइ हो,
सगुणा साहिब माहरी रे ॥१॥ मुझ मन चंचल एह, राखं तुझ नइ हो,
सगुणा साहिब नवि रहइ रे। मुझसुं धरिय सुनेह, राखउ चरणे हो,
सगुणा साहिब सुख लहइ रे ॥२॥
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