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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
तहाँ करन क्रीड़ा मुखर बीड़ा चावती त्रिय जात । केसरी सारी मूल भारी पहिरि कै हर्ष न मात || ६ ||३०|| ससि सूर ढांकर जहाँ तहाँ के पंथ पूरे नीर |
कुल के वन में निकि छिन मई झकोरतहिं समीर ॥ बहु सलिल पाए वेलि छाए सघन वृक्ष सुहात । अंकार भमरे करत गुणरे चुंवत पल्लव पात ||७||३०|| अद्रिसई उतरी भरी जलसई नदी आवत पूर । करणी के दरखत निकट निरखत छिन करत चकचूर ॥ सूकत जवासौ तरु निवासौ करत पंखी वृन्द । घन विप्रतारे सर संभारे हंस मिथुन निरदंद ||८||३०||
रंगइ रसीली निपट नीली हरी प्रगटत ज्यांहि । डोलत अमोला मृदु ममोला लाल से तिन माँहि ॥ उच्छाह सेती करत खेती करसनी सुविचार | सब लोक कुं आनंद उपज्यौ व्रज्यौ है दुरित प्रचार || ||३०|| वरसात इन परि झरी मंड३ छिन न खंडइ धार । राजीमती के वस्त्र भीने सबल झीने सार ॥
एकन गुफा में जाहि तामई सुकाए सब चीर । भई नगन रूपई अति सरूपई निरखी नेमि के वीर ||१०||३०|| निरखि के नागी तुरत जागी मदन नृप की छाक । घट भ्रमत ताकौ लगि झराकौ ज्युं कुलाल की चाक ॥ चिहुँ ओर घेरी अंग हेरी नृप सुता सुख काज । कहै वचन ऐसे अटपटे से सुनत ही आवै लाज || ११||३०||
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