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विनयचन्द्रकृति कुसुमाञ्जलि
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नेह थी नरक निवास, नेह प्रबल छ३ पास । नेहे देह विनाश, नेह सबल दुख रास || नेह० ॥ आ० ॥ परदेशी तर प्राहुणा रे हां, मेल्ही जाय निराश | नेह० । तिण थी केहर नेहलउ रे हां, न रहे जे थिर वास | ने० ||२| पहिलि मिलीयइ तेह सुं रे हां, करियइ हास विलास |०| मिलि नइ वीछड़ियौ पड़े रे हां, तब मन होइ उदास | ने० || ३ || वाल्हां नइ व लावतां रे हां, पीड़इ प्रेमनी झाल | ने० । हड़ौ फाट अति घणुं रे हां, नांखर विरह उछालि | ने०||४|| वलतां भुंइ भारणि हुवै रे हां, अंग तपइ अंगार | ने० । आंखड़ियइ आंसू पड़इ रे हां, जिम पावस जल धार | ने० ||५|| मत किणही सुं लगियो रे हां, पापी एह सनेह | ने० । धुखइ न धुंओं नीसरइ रे हां, बलइ सुरंगी देह | ने० || ६ || कोशा नइ स्थूलभद्र कहइ रे हां, नेह नी बात न भाखि |०| तिण कीधर ही सारियइ रे हां, विनयचन्द्र साखि |०||७||
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श्री स्थूलभद्र बारहमासा ढाल-चउमा सियानी
आषाढइ आशा फली, कोशा करइ सिणगारो जी । आवउ थूलिभद्र वालहा, प्रियुड़ा करू मनोहारी जी ॥ मनोहार सार शृङ्गार रसमां, अनुभवी थया तरवरा । do afar as आलिंगन, मूमि भामिनी जलधरा।। जलराशि कंठइ नदी विलगी, एम बहु श्रृंगार मां । सम्मिलित थइ नइ रहै अहनिशि, पणि तुम्हें व्रत भार मां ॥ १ ॥
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