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ग्यारह अंग सज्झाय ते रसीया मन वसीया विनयचंद्र नइ जी,
सउ मांहि मिलइ जोया एक कइ दोय हो ।७ मां०॥ ॥ इति श्री ज्ञाता धर्मकथांग स्वाध्याय ॥
(७) श्री उपासकदसांग सूत्र सज्झाय हिवइ सातमउ अंग ते सांभलउ, उपासक दशा नामइ चंग रे। श्रमणोपासकनी वर्णना, जस चन्दपन्नति उवंग रे॥१॥ मन लागउ रे मोरउ सूत्र थी, एतउ भव वइराग तरंग रे। रस राता गुण ज्ञाता लहइ, परमारथ सुविहित संग रे ॥२॥ इण अंग सुयक्खंध एक छइ, अध्ययन उद्देश विचार रे। दस दस संख्यायई दाखव्या, पद पिण संख्यात हज्जार रे ।।३।। आणंदादिक श्रावक तणउ, सुणतां अधिकार रसाल रे । रस लागइ जागइ मोहनी, श्रोताजन नइ ततकाल रे ॥४॥ श्रोता आगलि तउ वाचतां, गीतारथ पामइ रीझ रे। जे अद्धदग्ध समझइ नहीं, तेह सैं तो करिवी धीज रे ॥५॥ दश श्रावक तउ इहां भाखिया, पिण सूत्र भण्यउ नहिं कोई रे। ते माटई शुद्ध श्रावक भणी, एक अथेनी धारणा होइ रे ।।६।। साचो होअइ तेह प्ररूपियइ, निस्संक पणइ सुजगीस रे। कवि विनयचन्द्र कहइ स्युं थयउ, जउ कुमती करिस्यइ रीस रे।।७।।
॥ इति श्री उपासक दसांग सूत्र स्वाध्याय ।।
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