Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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संवर जलना प्रवाह बडे ज्ञानावरणादि कर्म रूप मल धोवाई जवाथी स्फटिक मणि समान अत्यंत शुद्ध केवलज्ञान दर्शनात्मक जेल श्रापनो स्वधर्म सर्वथा प्रगट-व्यक्त थयोछे, "तेमज श्रमारो पण सत्तागते रहेलो (ज्ञानाबरणादि कर्म बडे लिप्त थएलो) लोकालोक प्रकाशक अनंत. सुखनिदान अात्मधर्म संपूर्ण रीते प्रगट थानो" ए उक्त विनंती प्रार्थना हे भगवंत ! अमो दीन उपर करुणाद्रष्टी करी अवधारो-चित्तमा धारो ॥१॥
जे परिणामीक धर्म तुभारो, तेहवो अमचो धर्म ॥ श्रद्धा भासन रमण वियोगे, वलग्यो विभाव अधर्मरे ॥ स्वामी० ॥२॥ ___ अर्थः-सर्वे द्रव्य "उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" लक्षणवंत होचाथी प्रति समये परमभाव अनुयायी नवा नवा पर्याये परिण से छे अर्थात् वर्तमान पर्याय तीरोभूत थाथ छे भने नूतन पर्यायनो अावीर्भाव थाय छे भने द्रव्य ध्रुव रहे छे. तेथी पापनो आत्म द्रव्य, ज्ञान दर्शन चारित्रादि अनत शुद्ध पर्याय रुप निरंतर परिणमे छे-सहज