Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१४३ स्वभाव प्रभो तहकीकथी ॥ ४ ॥
अर्थ:-जेम पुगीना स्वरमां लीन थइ नाग पोताना मस्तकने पुंगी प्रमाणे डोलावे छे. तेम हुँ पण पांच इंद्रियोना विषयोमा लीन थइ माहरा आत्म परिणामने चपल करी कर्मजालमा फसायो "चलइ फंदइ” तथा मिथ्यात्वना आवेशमा अनंत धर्मात्मक वस्तुमांथी कोइक धर्मने मुख्यतया बखाणतां पाकीना धर्मोनी गौणपणे पण अपेक्षा नहि राखवा रूप एकांत वचन अर्थात् दुनयने ग्रहण कर्यो, ते प्रमाणे में वस्तु स्वरूप सहा तथा बीजाने पण तेमज एकांते उपदेश प्राप्यो “ दोहिंवि णयेहि णीय सत्थं मूलण तहवि मिच्छत्त; जस्सविसयप्पहाणं, तणेणं अणुण्णा निरवेरक” इति विशेषावश्यके-पण अनंत धर्मात्मक वस्तु स्वरूपने में यथार्थ जाण्यु नहि " अभिलाप्ये भावेभ्यः अनभिलाप्या अनंत गुणा” एम अनंत गुण पर्यायनो भाजन ते द्रव्य-वस्तु छे माटे दरेक वस्तुमा अनंत भाव छताछे-मालिनिछंद"बहु विह नय भंग, वच्छु णिचं अणिञ्च ।