Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 326
________________ २६० संवत अढारसें सात वरसें, फागुण सुदि बीज दिवसे रे । भी शांति जिणेसर हरपें थाप्या, (अति) बहुमाने सिव सुख . . . वरसे रे ॥३।। नीबड़ी नयरी मडण मनोहर, शांति चइत प्रसिद्धो रे ।। वृद्ध शाख पोरवाई प्रगट जस, वोहरे डोसे, की(ली?)धो रे ॥४॥ जिन भगते जे धन आरोपे, धन धन तुसी मत धागे रे । गुणी राग थी तनमय चितें, पुद्गल राग उतारो रे ॥३॥ तीर्थकर गुण रांगी बुद्ध, रत्नत्रयी प्रगटावो रे । 'देवचन्द्र ' गुणरंगे रमतां, भव भय सर्व मिटावो रे ॥६॥ __इति शांति स्तवन सपूर्ण (पत्र १५७ वां) आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी भंडार लकड़ी। ___४ पार्श्वनाथ गीत ढाल -सखी री प्यारउ २, एहनी .. सखी री वामा राणी नदा, अश्वसेन पिता ' सुखकंदा । प्रभावती राणी इदा, दीजै मुझ परम आणदा हो लाल ॥१॥ वीनती ए मुम धरिया, पातक सगला हरीयइ । मुम उपरि महिर जकरीयंह,तिम केवल कमला वरीयई होलालार सखीरी.तुझ सेवन पाई'दुहली. योनि गई सहु-अहिली' । हिव सेवा कीजइ-सहिली, मुम इच्छा पूरउ वहिली हो लाल ३! सखीरी ते सह पातक रोकइ, ते जय पामइ, इण लोकइ । रिदि नहइ. बहु थोकर,जेोतुम पदपंकज धोका हो लाल||४||

Loading...

Page Navigation
1 ... 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345