Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 338
________________ २६८ स्व संयम पावस बसे, दहै प्रमाद दुख झीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन [७१ पुदगल जीद की सक्ति सब, जरत सप्त भय हीन । चक्रवर्ति ते अधिक सखी, मुनिवर चारित नीन । सप्तम गुण थांनक रहै, कीयो मोह मसकीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन || क्षपकोपशम पयड़ी चढ़े, आतमरस सुधीन । चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन १० तूर्य ध्यान ध्याते सम, कीये करम सब छीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।११। देवचन्द्र वाचै सदा यह मुनिवर गुण वीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।१२। (इति प्राकृत भाषया समस्या दोधक द्वादश, कृता पं० देवचंद्रेण) ११ हीयाली। - ॥ ढाल राय फुयरि वरि वाई भलो भरतार ए देशी । इक नारि रूपी रूयड़ी, जनमी ज साते तात ॥ मलपती मानव अलरइ, सगला चित्त 'सुहात ।। कहो रे चतुर नर ए हीयाली सार । • जो तुम्हे चतुर विचार || क० ॥ आकणी ।। भरतार पास नित रहै, बोलइ न भरता संग । भवर पुरख आवी मिल्या, वात करइ मन रंग ॥२|| का

Loading...

Page Navigation
1 ... 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345