Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 339
________________ २६६ दोई नेत्र पति सांम्हा सदा, देखे न पति ने अंग । कान अभंग ||३|| क॥ वातालू जीहा विना, मोटा विचि विचै उज्जल नर मनोहर, भरि साख द्ये हुंकार | पर कांधइ न चढे कदे, चरण विना चलै सार ||४|| क|| इक ना सु जासु वैर छै, वेवे न शीत न ताप । देवचंद्र भाखइ तेहनौ, मोटां सू मेलाप ||५|| क०|| इति हीयाली संपूर्ण || ( हीयाली १ सुमतरंग १ दुर्गदास कृत सह । पत्र १ ) ( न० ३-५ को छोड़ सभी रचनायें शाखा भंडार 'बीकानेर से प्राप्त हुई हैं ) 1 1 उदय स्वामित्व पंचाशिका 'मंदित्तु वद्धमाणं, निणं च गुरु- राजसार -पय- कमलं । गई आइएस वुच्छं, समासो उदय - सामित्तं ॥ १|| थीतिर्गम इत्थी, नरतरि- सुर-निरय- श्रा उगई पुब्बी । वेल्विदुगं जाई, चौ आईल्नाई सरल - दुगं ॥२॥ आहार-दुगं संघयण-छक्क, आगई आइन्स पंच सुभखगई । थावर सुभग उक श्रयव-उज्जोय-जि-उच्चं ॥३॥ मीसं सम मिच्छ श्ररणचर, दुहग-इग बीय कसाय चड़-परघा । उसास एय पयडी, अवहरणिजा उदय श्रीगणपण मणुय नवगं, एगिंदिय जाइमाइ दुगतीसं । बज्जित्तु नरय चोहो, इसयरि विणुमीस दुगमिच्छे ||५|| मज्मे ॥४॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345