Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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अमर अखंड अरूप, पूर्णानंद स्वरूप । आज हो चिद्रूपे दीपे थिर समता धणीजी ॥४॥
अर्थः-इंद्रिय, बल, आयु अने श्वासोश्वास ए चार जीवनां व्यवहार प्राण के अनेते प्राणना वियोगे मरण कहेवाय छे. पण हे भगवंत ! आपे ते व्यवहार प्राणने पौद्गलीक पर द्रव्यथी निष्पन्न साक्षात्पणे जाणी ते प्राण उपरथी, ममत्व उठावी पोताना शुद्ध चेतना प्राणवडे पोतार्नु जीवन स्विकायु छे, ते चेतना प्राणनो श्रापथी कोइ पण काले वियोग थाय तेम नथी, माटे आप सदा अमर छो.
जे संयोगी पदार्थ होय तेमा संधि होय, अने जेमा संधि होय ते भांगी तूटी शके. पण हे भगवंत! भाप असंयोगी शुद्ध एक तत्व छो, आपना अंगमां संधि नथी, तेथी आप सदा अखंड छो.
परम स्वभावने अनुयायीपणे द्रव्यना सर्वे गुणो होय छे. जीव द्रव्यनो परम गुण चेतनत्व के माटे जीवना सर्वे गुणो चेतनानुगत होय, ए शिवायना गुणो जीव द्रव्यमा होइ शके नहिं; माटे रुप, रस, गंधादि गुणो चेतनानुगत नथी माटे रूपादिगुणोनो जीव द्रव्यमा अत्यंताभाव छ तेथी