Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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२१५ विभूतिमां संतोष पणे निरंतर सचेत रहे तेनी विभूति बीजो कोण लूटी शके १ ॥२॥
अतींद्रिय गत कोह,विगत माय मय लोह ॥
आज हो सोहेरे मोहे जग जनता भणीजी॥३॥ ____ अर्थः हे भगवंत ! आप अतींद्रिय छो. पांच इंद्रियोना स्पर्श, रम, गंध, रूप, अने शब्द ए पांच विपयो छ, माठे इंद्रियोनो विषय फक्त पुटुगल छे, परंतु आप अरूपी द्रव्य होवाथी इंद्रिय विषयथी तदन भिन्न छो मेथी आप इंद्रियो बडे अगोचर . (अतींद्रिय) छो.
शरीरादि परद्रव्यमां जेने अहं ममत्व बुद्धि होय तेने क्रोद्ध उपजवानो संभव के कारण के ते शरीरादि अनित्य अने परक्षेत्री पदार्थो होवाथी कोई लेने वगाडे विणशाचे अथवा वियोग करे उपर तेने क्रोध उपजे छे. पण हे भगवंत ! आपतो ते शरीरादि परद्रव्यतुं सर्वथा ममत्व तजी पोताना नित्य, अभेद्य समवाय संबंधी ज्ञानादि गुणेमां पोतानुं स्वामित्व अनुभवो छो. तेने कोइ पण अन्य द्रव्य रंचमात्र पण हरकत करवा समर्थ नथी तो मापना परिणाममां क्रोधने अवकाश क्यांची !