Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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अर्थ:--स्खून कथित निर्दोष मार्गनी अपेक्षा विना तथा शुद्ध प्रणिधानादिकने अभावे उपयोग शून्ये मूर्छिमनी पेठे वीजाना देखादेखी जे क्रिया करवी ते अन्योन्यानुष्ठान जाणवू-सूत्रनी शैली रहित पणे मतानुगतिक पणे बोघसंज्ञाए तथा लोक संज्ञाए जे कर ले अन्योन्यानुष्टान छे ते उपयोग शून्य अर्थात् ज्ञान रहित होवाथी ते बडे सकाम निर्जरा थई शके नहि, मा विषादि चणे अनुष्टानमा अशुद्ध क्रियानो अादर उपजे छे माटे श्रा व्रणे
धनुष्टान त्यागवा लायक छे. ___यद्युक्तं सूत्रकृतांगे-"जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्त दंसिणो । अशुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होई सवसो॥" .
अर्थः-व्याकरणादिक लोकिक अनेक शास्त्रने जाणनारा पण जैन सिद्धांतना शुद्ध तत्वज्ञानथी अजाण अर्थात् सम्यक्त्व परिज्ञानथी रहित होवाथी अवुध, एहवा पुरुषो जो के शूरवीर होय तथा त्यागादि गुण वडे लोकमां पूज्य गणता होय सथापि तेश्रोनो दान, तप, नियम आदिकने विषे उद्यम पराक्रम ते सर्व अशुद्ध जाणवो. कारण के