Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
View full book text ________________
ર૪. शेरे। मना रसवेधित अय जेमरे ।भवि. ॥६॥ ___ अर्थ:-कठोर श्रने कुरुप ए, अय कहेतां लीढं ते रस वेधित थवाथी जेम सुंदर अने कोमल एहवा सुवर्णपणाने प्राप्त थई जाय छे. तेम जिनेश्वरनी भक्तिमा चित्त लीन थाय ते चित्तने ते जिनेश्वरना गुण रागरुप वेधकरसनो योग थाय तो ते चित्त पूर्ण निर्मलपणाने प्राप्त थाय. एम सेवक श्राप समान अरिहंत पद्ने प्राप्त करे. ॥ ५ ॥
नाथ भक्तिरस भावथीरे। मनः । तृण जाणु पर देवरे । भवि० । चिंतामणि सुरतरु थकीरे । मन० । अधिकी अरिहंत सेवरे । भवि० ।।
अर्थ:-श्रा घोर भवाटवीमा भ्रमण करता अशरण प्राणीने हे भगवंत! मात्र एक आपज शरण छो, शिवपुरीए दोरवावाला छो माटे श्रापज नाथ छो तथी हे प्रभु! आपनीज अक्तिरूप रसमामाहरूं चित्त लीन थाग छे. विषय कषाययुक्त कुदेवो तरफ तृणनी पेटे स्याग भाव उपज . चितामणी तथा कल्पवृक्षथी पण प्रभनी सेवाने अत्यंत आदरणीय मानुं . आपनी सेवा प्रागल ते चिंतामणी तथा कल्पवृक्षादिअतिशय तुच्छ पदार्थ भासनथाय छे. ६।
Loading... Page Navigation 1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345