Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
View full book text ________________
२५७
जीव जग तीन मइ छइ किना, जीव मइ तीन जग सार रे ।। जीवं बडउ जगत्रय बडउ, जीव जग तीन ' सिणगार रे ॥ एह सरूप जगत्रय तण, चीतवइ चित्त 'मइ नित्य रे।' तेथि संस्थान-विचय भलउ, पाय चउथउ ध्रम कित्त रे ॥१०
धरम ध्यान ध्यायां पछी, सुख शिव पद' दातार ।' शुकल ध्यान ध्यावे 'भविक, आतम' रूप उदार ॥१॥ घ्यार पाय तिण शुक्ल ना, पृथक्क-वितर्क विचार । , बीजउ शुक्ल सुहामण उ, एक-तर्क अविचार ॥२॥ तीज़उ शुक्ल श्रुतइ कह्यौ, -सूक्ष्म-क्रिया - प्रतिपाति । चउथउ शुक्ल ध्यावइ सदा, छिन्न-क्रिया प्रतिपाति ॥३३॥
ढाल-मालीय केरे वांग मइ एह नी" एक द्रव्य परयाय सु, शुक्लई मन लावउ जो ॥ अहो? उतपति थिति इम भंग सू, तिण माहि मिलावट लो । अहो. ११ साते नय दो नय थकी, जग रूप विचारइ लो । ०। तीन योग इक योग सू', मन माहि उचारई लो ॥२॥ अ० पृथक-वितर्क विचारते, शुक्ल ध्यान कहावई लो । अहो । निश्चय मन-ध्यावइ ,सदा,, ते चढतइ दावइ लो। अहो । एक वस्तु नय-सातासु, माहो माहि मिलावइ लो। अहो? एह मिलइ दो नय थकी; ए च्यार मिलावइ'लो. । अहो018| केवल तदि पामी फरी,-ते ..ध्यान जल्यावई लोना-या
+1
.
Loading... Page Navigation 1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345