Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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२५५ यक्ष दैत्य विष साप, जल थल जीव सहू री। सायण सायण भूत, गाजै सींह बहू री ॥७॥ नयडइ श्राव्य दुक्ख, जे मन क्रोध करइरी । टालू दूरइ एह, मन मई - एम धरइ री ॥८॥ एहवउ दुष्ट स्वभाव, जिण र चित्त रहा री । आर्त्त अनिष्ट-संयोग, जिनवर तेथि कहइ री ॥६॥ भोग सुहाग विशेष, चित वंछित सुह दाता । वांधव मित्र कलत्र, ऋद्धि पितृ वलि माता ॥१०॥ हुयइ इष्ट-षियोग, एहष ध्यान भिलइ री । कर कोइ उपाय, जिणसु इष्ट मिलइ री ॥१॥ इष्ट मिलेवा काज, मन संकल्प वहइ री । ध्यांन ए इष्ट वियोग, बीजउ आर्त कहइ री ॥१२॥ कास स्वास जर दाह, जरा भगंदर रोगा । पित्त श्लेष्म अतिसार, कोष्टादिक ना योगा ॥१३॥ एहवइ ऊपनइ रोग, मन मइ चित करइ री । श्रोखध कर र अपार, सुख कारण विचरइ री ॥ १४ ॥ क्रोध मोह मद लुद्ध, मन मइ दुष्ट धरइ री। रोग चिंत इण नाम, तीजउ आत वहइ री ॥ १५ ॥ राज रिद्धि सुख पूर, काम भोग नित चाहइ । धन संतान निमित्त, देह कष्ट बहु साहइ ॥१६॥ वासुदेव चक्रवत्ति, सुर किन्नर पद काजइ । इह लोक नइ परलोक, सुख वांछा मन छानइ ॥ १७ ॥
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