Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
View full book text
________________
२३२
श्रापना तथा माहरा क्षेत्रमां अत्यंत भेद ( अंतर ) पढ्यो छे तो आपना प्रत्यक्ष दर्शननी माहरी मनोकामना शीरीते पूर्ण थाय १ ॥ २ ॥
होवत जो तनु पांखडी, आवत नाथ हजूर लालरे || जो होती चित्त आंखडी, देखत नित्य प्रभु नूर लालरे || देव० ॥ ३ ॥
अर्थ:- पण हे भगवंत ! जो माहरा शरीरे पांवो होत तो हुं ते पांखो वडे उडी पूरकलावर्त विजयमां आप प्रभुना समीप याची आपनुं दर्शन, वंदन करत अथवा जो मने चित्त श्रांखडी अर्थात् ज्ञान नेत्र अवधिदर्शन होत तो अहिंत्रां रहीने पण चोत्रीश अतिशय श्रने श्रष्ट महा प्रातिहार्यादिक विभूति सहित आपना तेजस्वी रूपने हमेशां निरख्यां करत.
प्रकारांतरे - हे भगवंत। जो माहरा श्रात्म अंगे सम्यक् चारित्र रूप प्रवल पांखो होंत तो ते पंखे वडे चिदाकाशमां उडतो-विहार करतो आप ज्यां वसो छो एवा विदेह - देह रहित सिद्ध क्षेत्रमां आप समीप यावी हाजर थात अथवा जोकदाच चित्त श्रांखडी कहेतां केवलदर्शन होता तो आ क्षेत्रमां रहीने