Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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२२१ जे एकवारज भोगवना योग्य होय ते भोग, भने जे भनेकवार भोगववा योग्य होय ते उपभोग कहेवाय छे माटे ज्ञानादि शुद्ध गुणो सहभावी होषाथी हमेशा आपमा कायमपणे रहेनारा छे, माटे आपमा ते गुणोनो उपभोग छे. ___वली हे भगवंत! मन, वचन, काया तथा कोइ पण पुद्गलयोग विना आप परकर्तृत्व तथा परभोक्तृत्व निवारी स्वभावना कर्ता भोक्ता वन्या छो, एहवा आप त्रिलोकपूज्य प्रभुनु मने कोइ महत् पुण्यना पसाये अाजे दर्शन मल्युं छे. इंद्रिय गोचर वस्तुनुं दर्शन तो सहजे सर्वे पामी शके.पण श्राप तो अरूपी निष्कर्म छो. पापना दर्शननी प्राप्ति तो विरलानेज थई शके के. ॥६॥ दरिसण ज्ञान चरित्र, सकल प्रदेश पवित्र आज हो निर्मल निःसंगी अरिहा वंदियेजी ॥७॥ __अर्थः-मापनुं दर्शन थतां श्रापना सर्वे प्रदेश अत्यंत निर्मल ज्ञान दर्शन अने चारित्र वडे परिपूर्ण पवित्र जोइ तथा मापनेज जगत् त्रयमा निर्मल तथा निःपरिग्रही अवलोकी कर्मशत्रनो अंत प्राणनार भाप श्री वीरसेन प्रभुने कर्म क्षय निमित्ते त्रिकरण योगे बंदु छ॥७॥