Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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तेने में आत्म तत्त्व जाणयुं एटले शरीरमांज अहंबुद्धि करी शरीर तेज हुं छं एम जाण्यु-शरीर वचन अने भननी क्रियाने में आत्मक्रिया जाणी योगक्रिया, ममत्व कयु, एम में बहिरात्मभावनुं ग्रहण कयु, श्रास्माथी अन्य जे अचेतन, जड, क्षणभंगूर शरीर तेमां अहंबुद्धि तथा धन, स्वजन, परिजनादिकमां ममत्व बुद्धि करी श्रात्म स्वरूपथी अजाण रह्यो, माहरा स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावने न जाण्या, पुद्गलना द्रव्य क्षेत्र, काल, भावमा अहं ममत्व मान्यु, जे भाव माहरा अस्तिधर्ममा नथी तेने में माहरा मान्या, आस्मप्रदेशथी बाहिरला परक्षेत्री भावने माहरा मान्या, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीयथो रहित रह्यो. ॥ ४ ॥ केवल केवलज्ञान महोदधि हो जी, केवल. दंसण बुद्ध । वीरज वीरज अनंत स्वभावनो हो जी, चारित्त दायक शुद्ध । नमि०॥५॥
अर्थः-पण हे नमिप्रभ जगत्गुरु! श्राप तो बहिरास्मभावनो अत्यंत प्रभाव करी सर्वे द्रव्यने तेना त्रिकालवी पर्यायो सहित एक समये प्रत्यक्षपणे जाणवा समर्थ एवं जे केवलज्ञान तेना