Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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तथा बंध तत्त्वं ऊपर त्याग भाव अने जीवना गुण जे सवर, निर्जरा, मोक्ष तत्त्व ऊपर उपादेय परिणाम ते भाव छे. माटे शुद्धात्म भाव सन्मुख -अर्थात् श्रापणा श्रास्माने राग, द्वेष, मोह थी मात्र निवृत्त करवाना परिणाम सहित जो आवश्यज्ञादि करणीयोकरवामां श्रादेतो ते अवश्य मोक्षतुं कारण थाय. वली " सम्मत्तेणं सुद्धो, सञ्चसु किच्चो हवइ सिव हेऊ, संवर वुढी तह निजराय धम्म मूलं च सम्मत्त ॥” तथा “ मूलं दारं पइठाणं, आहारो भायणं निहि; दुसुकं सावि. धम्मस्ल सम्मत्तं परिकि य॥” शुद्ध समकिता तेज शिवनो हेतु, तथा संवरनी वृद्धि करनार, निर्जरानुं कारण होवाथी सर्वे धर्मनुं मूल, तथा मोक्ष महेलमा प्रवेश करवा माटे द्वार समान, चारित्र महेलनी पीठिका, तथा रत्नत्रयना भाजन रूप छे. एहवां अापनां पवित्र वचनो वांची सांभली में समकितने अमूल्य रत्न समान तो जाण्यु पण हे भगवंत ! श्राप तो " नय भंग पमाणोहिं, जो . अप्पा सायवाय भावेण, जाणइ, मोरक सरूवं,
सम्मदिठिउ सो नेओ" नय भंग पक्ष प्रमाण