Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१८६ दिन प्रतिदिन वृद्धिंगत थाय, भाखरे पूर्णानंदनी प्राप्ति थाय ॥७॥
॥संपूर्ण ॥
॥अथ पंचदशम श्री ईश्वरदेव जिन स्तवनम् ॥
॥ काल अनंतानंत ए देशी ॥ । सेवो ईश्वर देव, जिणे ईश्वरता हो, निज अद्भुत वरी; तीरोभावनी शक्ति, आवीर्भावे हो, सहु प्रगट करी ॥ १॥
अर्थः-महाविदेहमा विहरमान हे श्री ईश्वरदेव ! आपे सर्व जगत् त्रयने अाश्चर्य तथा परमा' नंद पमाडे एवी इश्वरता प्रगट-संप्राप्त करी छे. ते ईश्वरता केवी छे-पोताना शुद्ध गुण पर्याय मां वरते छे तेथी पूर्ण पवित्र स्वाधीन तथा प्रविनश्वर छे. . परद्रव्यना रागथी रहित होवाथी राग द्वेष भय तथा कामनाथी रहित छे माटे अत्यंत सुख समूह रूप छे. परमानंदमय छे.
अनादि विभावने लीधे आत्मा राग द्वेष रूप अशुद्ध भावे परिणमी ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारना कर्म बंधन वडे पोतानी ज्ञानादि अनंत विशेष