Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१६१ नये पोतानी ज्ञानादि निष्कलंक, भविनश्वर लक्ष्मी. ना स्वामी-ईश्वर थया छो माटे श्रापज साचा ईश्वर छो. ॥३॥
पूर्णानंद स्वरूप, भोगी अयोगी हो उपयोगी सदा ॥ शक्ति सकल स्वाधीन, वरते प्रभुनी हो जे न चले कदा ॥ ४॥
अर्थः-वली हे भगवंत ! श्राप पूर्णानंद स्वरूप छो. जगत्वासी जीवो धन स्त्री आदि ईष्ट पदार्थोनी अधिकतर प्राप्ति वडे पोताने पूर्णानंद माने छे; पण ते समुद्रना कल्लोलनी पेठे अवास्तविक छे, क्षणभगूर छे, तृष्णा रूपी भागने वधारनार छे, तथा स्वाभाविक संपदानो घात करनार छे. पण प्रापनी ज्ञानादिक संपदा ते श्रापथी प्रदेशांतरे नथी तेथी ते दूर थवानो कदापि भय नथी, वली एक क्षेत्राघगाही होचाथी चाह दाहथी अतीत छे, वली ते ज्ञानादि संपदा सहज स्वाभाविक छे माटे ते राखवानो अथवा मेलववानो प्रयास करचो पडे तेम नथी, वली ते आपने सहज संबंधे छे तथा परद्रव्यथी भग्राह्य छे माटे तेने कोइ भांगी लूटी