Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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में भोगव्या, हुं भोगq छु, हुं भोगवीश, एम पर. भावना भोक्तापणानुं अभिमान करे छे. पण ज्यारे सम्यक्ज्ञाननी प्राप्ति थाय स्यारे पोताना ज्ञानादि शुद्ध गुण पर्यायने पोताना भोग उपभोग जाणी ते भोगववानो कामी थइ तेना भोगमा मग्न थाय, परभादर्नु भोक्तापणुं दूर थाय. तेमज अनादि विभाव वशे अशुद्ध कारक प्रवृत्तिमां पोताना प्रात्म परिणाम ने थिर करे छे, तेमज परभावमा व्यापक अर्थात् तल्लीन-तद्गत 'थइ रहे छे, तेमज अशुद्ध ज्ञाने परिणमे के अर्थात् देहने प्रास्मतत्त्व जाणे छे, पौद्गलीक भोगने आस्म भीग जाणे,छे, पौद्गलीक विषय सुखमा सुख जाणे छे, शारीरिक वीर्यने प्रास्मवीर्य जाणे थे, तेमज पौद्गलीक परिणाममा पोनाना आस्माने स्थित करे छ, एम अज्ञान वशे संसारी भात्मा पोताना सर्वे कर्तस्वादि स्वभावने अशुद्धपणे परिणमावी अनेक प्रकारना ज्ञानावरणादि कर्म बांधि पोतानी ज्ञानादिक अनंत संपदाना ईश्वरपणाथी दर वर्ते छे. पण हे ईश्वरदेव ! आपे ते पोताना सर्वे कर्तृत्वादि स्वभावने शुद्ध भावे परिणमाव्या-पूर्ण पवित्र थया, हवे कोइपण काले अशुद्धताय परिणम नहि माटे भाप श्री एवंभूत