Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१४७ भाववडे " हुं भव्य छु" एवु अनुमान थायछे तो पण हे सर्वज्ञ देव ! आपना मुखारविंदही " तुं भव्य छु” एवं वचन सांभलं, तो माहा नव्यत्वनी मने संपूर्ण पणे प्रतीत थाय अने सहज स्वतंत्र सचिदानंद्भय अनंत सुख समूहरूप शिवपद प्राप्तिनो भरोसो थाय ॥ ६॥ वलग्या जे प्रभु नाम धाम ते गुण तणा, धारों चेतन राम एह थिन वासना ॥ देवचंद्र जिनचंद्र हृदय स्थिर थापजो, जिन आणा युत भक्ति शक्ति मुज आपजा ॥ ७॥
अथ:-हे भगवंत ! जे पुरुषो आपना स्मरण, कीर्तन,भक्ति विगेरेमां लीन छे तेज पुरुषो गुणना धाम कहेतां भाजन छे. माटे हे चेतनराम ! निरंतर प्रभुना स्मरणमां चिर वासकर, एक पण समय प्रभुपदने विसार नहि. देवचंद्र मुनि कहे छे हे जिनेश्वर देव ! मने लब्धि वीर्यनुं दान करी आपनी श्राज्ञा प्रमाणे श्रापनी भक्ति करवानी मने शक्ति श्रापो कारण के श्रापनी आज्ञाथी विपरीतपणे करेलां सर्वे क्रिया अनुष्टान निष्फल छे. "जो कोइ आणा रहिओ, पूआ पमुहं करेइ तिकालं ।