Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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पर्यायन भवन करवानुं सामर्थ्य जेमा नथी तेनु __ कार्य थाय नही. ए विगेरे विभावथी पटली स्व
भाव रूपे परिणमवानुं सामर्थ्य नथी एवा अभव्य जीवो अनंत कालसुधी अनंन उपाय करता छतां पण " कोटी जतन करी निशदिन धोवत उजरी न होवत कामर कारी" ए प्रमाणे श्रा संसार चक्रवालमांथी मुक्त भई मिद्धि सुख पामी शके नहीं. कारण तेश्रो व्रत, समिति, गुप्ति आदि पालता छत्तां पण मिथ्यात्व, अज्ञान अने पराचरण (मिथ्याचरण ) ना सेवक छे उक्तंच वद समिदी गुत्तीऊ, सील तवं जिणवरहि पणत्तः कुव्वंतोवि अभव्वो, अणाणी मिच्छदिठीऊ" कारण के अभव्य जीवोनो स्वभावज एवो छे के श्रुत अभ्यास करे, द्रव्यथी पंचमहाव्रत आदरे पण आत्मतत्त्वनी यथार्थ श्रद्धाविना कोई, पण काले प्रथम गुणस्थानने मूकी शके नहि माटे तेश्रो सिद्धिपद पामवाने योग्य नथी. पण हे जिनेश्वर ! अापना अाज्ञा प्रमाणे श्रा संसारथी निवृत्त थइ क्ष स्व. रूप साधवानी मने रुचि छे, भवभ्रमणथी भयभीत छ. तथा सस्य न्यायने स्विकारूं छु, ए आदिकेटलाक