Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१४४ सद सदनाभलप्पं, लप्पमेगं अगं" ते में एकांत-मिथ्यात्व वशे न जाण्या-एम मिथ्यात्व भावमा फसी रह्यो अने तेथी इंद्रगणे वंदित, त्रि. लोक पूज्य जे लोकोत्तर अरिहंत देव तेश्रोने लौकीक रीते अर्थात् अज्ञान अने राग सहित, परभावना कर्ता हर्ता जाणी आलोक परलोक संबंधी विषयोनी प्राप्ति अर्थे, तथा मान पूजा अादि अर्थ नमु छु-चंदन स्तवन पूजा प्रमुख करूं छं पण तेथी जिनेश्वरे वतावेलो जे अत्यंत दुर्लभ सिद्ध स्वभाव तेनी प्राप्ति केम थाय १ ॥ ४ ॥ महाविदेह मझार के तारक जिनेवरु, श्री वज्रधर अरिहंत अनंत गुणाकरू । ते नियामक श्रेष्ट सही मुज तारशे, महा वैद्य गुणयोग रोग भव वारशे ॥ ५॥
अर्थः-महाविदेह क्षेत्रमा विचरता श्रा भीम भवार्णवमाथी भव्य समूहनो उद्धार करनार, सर्वे केवलीअोमां इंद्र समान, शिरोमणी, ज्ञानादि अनंत गुणना आकर-निधान हे वज्रधर अरिहंत ! श्राप, चरण जहाजने चलावनाराअोमा अग्रेसर-प्रधान सर्वोत्तम निर्यामक होवाथी आ भयंकर भवाब्धि