Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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१४२ सहित स्याद्वादनये जीवादि तत्त्वने यथार्थ जाणे
तेमज श्रद्धा करे छे तथा हेयने स्याग करवानी तथा उपादेय भावने अादरवानी रुचि होय तेने समकीती कहो छो. पण ते प्रमाणे तो में स्थाबादनये आत्म तत्त्वनुं स्वरूप यथार्थ जाण्यु, सद्दद्यु नहि तथा समकितना जे सडसठ ( चार सद्दहणा, नण लिंग, दश प्रकारे विनय, व्रण शुद्धि, पांच दूषणनो नाश, भाठ प्रकारे प्रभाविक पणुं, पांच भूषण, पांच लक्षण, छ यतना, छ प्रागार, छ भावना तथासमकितना छ स्थानक) बोल. आपे कहा छे ते जाण्या शिवाय तथा जे होवा जोइए तेनी मारामां प्रगटता थइ छे के नहि, तेनो विचार करन्या विना, समकीतना लक्षणोनी प्राप्ति विना, मात्र दृष्टीरागना पोषने अर्थात् नय, निक्षेप, पक्ष, प्रमाण वडे परीक्षा कर्या शिवाय कुलक्रमानुगत देव गुरु धर्मनी द्रव्यपरंपराय श्रद्धाने समकित गणी क्रियानुष्टान सेव्यां पण निश्चय समकीत विना मने मोक्ष फलनी प्राप्ति थइ नहि. ॥३॥
मन तनु चपल स्वभाव वचन एकांतता, . वस्तु अनंत स्वभाव न भासे जे छता । जे
ठोकोत्तर देव नमुं लोकीकथी, दुर्लभ सिद्ध