Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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थी आ भयानक भवसमुद्रमा भ्रमण करतां जन्म जरा मरण रोग शोक वियोग ताडन तर्जन आदि अनेक प्रकारनां शारीरिक तेमज मानसिक दुःखो सहन करे छे, पोतानी अनंत अानंदमय दशाथी दूरवर्ती थइ रह्यो छे, तेथी अज्ञान मिथ्यात्व अने कषायादि दूषणोथी मक्त करी, अनंत ज्ञान दर्शन सुख वीयमय परम निर्मल शुद्ध सिद्ध पदम विराजमान करवो अर्थात् पूर्ण शुद्धात्म भाव प्रगट करपो-प्राप्त करवो, एज भापणुं परम कत्तव्य छे तथा एज आपणुं सर्वोत्कृष्ट अनंत सुखप्रद अवि. नश्वर साध्य छे. पण मोहनिय कर्मना प्रबल उदय बडे पोताना सर्वोत्कृष्ट साध्य साधवानी रुचिथी परोङ्गमुखपणे धर्मनुं मूल जे समकीत (सम्मत्तेणं सुध्धो, सच्चसु किच्चो हवइ सिवहेउ, संवर वुट्ठी तह निजरा य धम्म मूलं च सम्मत्त) ते प्राप्त कर्या वगर पोताना दुष्कृतो ढांकवा माटे, अथवा मान पूजाने अर्थे, अथवा श्रा भव संबंधी कामभोगना पदार्थो मेलववा माटे, अथवा देवादिक गतिना मनोहर विपुल भोगो प्राप्त थवा माटे घणा जीवो सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चखाण, तथा समिति परिसहसहनादि अनेक द्रव्य क्रियामो चि सहित