Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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अर्थः-मेरुपर्वत जेटला राइना ढगलामां पडी गयेलो सरसवनो दाणो मली शकवा जेम अत्यंत मश्कल के तेमज मनुष्य भव पण या भवसमुद्रमा भ्रमण करतां पामवो अत्यंत दुर्लभ छे तम छता कदाच मनुष्य भवनी प्राप्ति थाय तो, आर्यक्षेत्र, लांबु आयुष्य, नीरोगता, उचकुल विगेरे उत्तरोत्तर अतिशय दुःप्राप्य छे छतां ते सर्वे सामग्रीअो कोई माहरा महत् पुण्य प्रसादे आ दुःषमकालमा (पांचमा श्रारामां) हे चंद्रानन प्रभु ! मने प्राप्त थइ पण केवलज्ञानी, चौद पूर्वधर, दश पूर्वधर, तथा प्रत्येक बुध के जेत्रो तत्त्वना यथार्थ ज्ञानों उपदेष्टा छे, जेनां वचनों प्रमाण भृत छे, निशंकपणे विश्वास पात्र छे, जेना वचनानुसारे सर्वेनी वचनो परखी शकाय छे, एवा गुण समुद्र पूज्य पुरुषोना वियोग बडे सहजा. नंदरूप मोक्षपद साधवानो साचो मार्ग अतिशय दुर्लभ थइ पडयो के. ॥२॥
द्रव्य क्रिया रुचि जीवडा रे, भाव धर्म रुचि हीन ॥ उपदेशक पण तेहवारे, शुं करे जीव नवीनरे ॥ चंद्रानन० ॥ ३॥ ___ अर्थ:-हे भव्यो! अनादिकालथी प्रापणो अात्मा जे अज्ञान, मिथ्यास्व, अने कषाय वडे मलीन होवा