Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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नधी; तथापि संसारी जीवोनुं वीर्य अनादिधी, कर्म पटल बडे प्रवृत्त होवाथी. आत्मगुणो. संपूर्ण शुद्ध केवलज्ञान, केवलदर्शन, येथाख्यात् चारित्रादि रूप परिर्मि शकता नथी अने तेथी पोतांनी अनंत अत्र्याबाध आत्मीय सहज समाधिथी-वियोगी रहे छे. तथा "ल" अर्थात् ज्ञानादि मास्म परिणतिमां निश्चल स्थिर नहि रहेतां राग द्वेष वशे अनेक पुद्गल पर परिणतिमां चलायमान थह रघु छे, पर कार्यमा रोक इथं. छे, जेम कोइ पुरुष पर कार्यमा पोतानी शक्ति रोके तो ते स्वकार्य साधी शके नहि तेमज ते वीर्य "बाल" हिताहितना ज्ञानथी रहित होवाथी “बाधकं" अर्थात् पोताने अहितकारी पणे परिणमे छे कारण के बाल बाधक वीर्य बडे जगत् जीवो अज्ञान मिथ्यात कषाय रूप परिणामी अनेक प्रकारना कर्मो बांधि पोताने अत्यंत अहितकारी - दुःख समूह रूप भवोपाधि व्हारी ले थे. पण जो पोताना वीर्य गुणने मात्र सम्यक् ज्ञान दे आत्म परिणाममांज बापरे तो अनंत सुखना स्वामी थाय ॥ २ ॥
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"अल्प वीर्य क्षयोपशम अछे, अविभाग
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वर्गणा रूपरे ॥ पडगुण एम असख्यथी,
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