Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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सुधीनुं ज्ञानपण अज्ञान कहेवाय छे त जे विना दशमा पूर्वतुं ज्ञान तो थतुंज नथी, चली जे विना संसार परिभ्रमणनी सीमा प्रावती नधी, जे विना सम्यक्चारित्र-संयमनी प्राप्ति थई शकती नथी, जे विना द्रव्यचारित्र पालनार प्रथम गुणस्थाने वर्ते छे माटे श्री जिनेश्वर, सर्व धर्मनुं मूल तथा मोक्षनुं प्रथम पगथीउ कहे है. ययुक्तं-श्रा मदभयदेव
आचार्येण-" दसण मूलो धम्मो, उबइठो जिणवरेहिं सीसाणं । तं सोउण सकन्नं, दसण हीणो न वदिवो ॥ ” लोकालोक प्रकाशक श्री जिनेश्वर देव पोताना शिष्यो प्रत्ये सर्वे धर्मनु मूल सम्यकदर्शनने बतावे छे माटे दर्शन हीण पुरुषने वंदना करवी नहि. उक्तंच-"सम्मत्त रयण भठा, जाणता बहु विहावि सछाई । सुद्धाराहण रहिआ, भमंति तछेव तछेव ॥", सम्यक्दनथी भ्रष्ट पुरुष बहु प्रकारना शास्त्र जाणता छतां पण शुद्ध श्राराधना रहित होवाथी संसार चक्र वा मां ज्यां स्यां भ्रमण कर्या करे छे कारणके सम्यक्दर्शन विना शुद्ध पाराधनानी प्राप्ति होय नहि. "शुद्ध किया तो संपजे, पुग्गल