Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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११० नहि तथा फल पामे नहि. अने सम्यक्दर्शन भ्रष्ट ने संजम का नथी एम जिनेश्वरनी प्राण' रहित सर्वे धर्मक्रिया निरर्थक अर्थात् मोक्ष फल प्रापी शके नहि.
तथा योगनी वीशीमा कां छे के "णाण गुणेहिं विहिणा, किरिया संसार बढणी भाणिया” ज्ञान गुण बगरनी क्रिया संसार वधारनारी कही छे. कारण के सम्यकज्ञान वगर संवर थाय नहि. अने संवर विना सर्वे समये कर्मबंध थाय अने कर्मबंधथी संसार वृद्धि थाय ए स्पष्ट छे. तथा सम्यकदर्शन रहितने व्रत पालता छतां पण तत्त्वार्थस्सूत्रमा भव्रती कहे छे " निशल्यो व्रती" मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य, अनिदानशल्य रहित व्रतधारी होय ते ब्रती छे. तथा वली श्रीमान् यशोविजयजी कहे छे के “रागमल्हार-भावीजेरे समकीत जेहथी रुअडु, ते भावनारे भावो मन करी परवडुं । जो समकीतरे ताजू साजु मूलरे, तो व्रत तरुरे दीये शिवपद अनुकूलरे। चूटक-अनुकून मूल रसाल समकीत, तेह विण मति अधरे । जे करे किरिया गर्व भरिया, हते जूठो धंबरे ॥” मा टे