Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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तेणे तुमाहज देव महंतरे ॥ मन० ॥८॥
अर्थ:-सर्व विभाग रूप संश्लेष रहित जे आत्म वीर्य ते शुद्ध छे, तथा तेज वीर्य कामना रहित मात्र पोताना स्वगुण पर्यायमा वर्तवाथी परगुण पर्यायमां चलायमान थतुं नथी तेथी अचल छे, एबा शुद्ध अने अचल' वीर्यनी नैरुपाधिक अर्थात् स्वाभाविक अनंत शक्ति छ अर्थात् ते वीर्य वडे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन विगेरेनी वर्त्तना थाय छे माटे ज्यांसुधी वीर्यगुणमा अशुद्धपणु तथा चलपणुं छे स्यांसुधी अल्प बल छे, अनंत ज्ञानदर्शनरूप अनंत शक्ति होइ शके नहि. पण हे भगवंत ! ते शुद्ध अने अचल वीर्यनी स्वाभाविक अनंत शक्ति प्रापमा प्रगटपणे छे एम में निसंदेह जाण्यु कारण के एक समयमां सर्व पदार्थना कालिक पर्यायने प्रगटपणे जाणो देखो छो तेथी हे भगवत ! आपज देव इंद्रादिकने पूजवा लायक देवाधिदेव छो, अनंत केवल लक्ष्मी वडे सदा देदिप्यमान छो ॥८॥ तुज ज्ञान चेतना अनुगमी, मुज वीर्य स्वरूप समायरे ॥ ॥ पंडित क्षायिकता पामशे ए पूरण सिद्धि उपायरे ।। मन० ॥ ९ ॥