Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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पदक्रज,सुपसायरे द० ॥ श्री० १०॥
अर्थ-हे प्रभुजी ! आँप ' चार गति रूप भव ब्रमणना दुःखंथी त्राण अर्थात् रक्षण करनार तथा महान् दुःखदायी ज्ञानावरणादि प्रचंड अष्ट कर्म शत्रउंथी डरता भव्य प्राणीउने शरण छो तथा भय समुद्रमा वृडता भव्य प्राणीउने हस्तावलंबन रूप छो तथा भव्य जीवोने मोक्षलक्ष्मी वरवामां परम सहायभूत छो, 'तेथी हे गुण सागर अापना निर्मल चरण कमलना पसायथी देवमां चंद्रमा समान परमात्म पदनी प्राप्ति थाय ए निर्विवाद छे ॥१०॥
(संपूर्ण) ॥ अथ तृतीय श्री वाहुजिन स्तवनं ॥
संभव जिन अवधारीये ॥ ए देशी ।। बाहुजिणंद दयामयी, वर्तमान भगवान प्रभुजी ॥ महाविदेहे बिचरता, केवल ज्ञान निधान ॥ प्रभुजी ।। वा० ॥१॥ ____अर्थ-महाविदेह क्षेत्रमा विहरमान वर्तमान भगवान, सडण पडण विवंसन धर्म युक्त पौद्गलीक शरीरथी अत्यंत विलक्षण महान् प्रास्म सत्ता