Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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प्रत्यक्ष पणे समकाले जाणवी देखवावाला प्रभु प्रत्ये वारंवार शुं कहुं ! मने तो हे प्रभु ! स्वयंभू. रमण समुद्रनी' पेठे अखूट आनंद रसथी भरपूर पापनाज पदनुं ध्यान-आपना पदमां एकाग्रचित्ततल्लीनता तेज भव समुद्रधी तरवामां उत्कृष्ट आधार भूत छे. ॥५॥
कारणथी कारज हुवे, ए श्री जिनमुख वाण ॥ जि० ॥ पुष्ट हेतु मुज सिद्धिना, जाणी कीध प्रमाण ॥ जि०॥ श्री० ॥६॥
अर्थः-जगत् दिवाकर, संपूर्ण तत्त्व वेत्ता, श्री केवली भगवंत एम प्ररूपे छे के योग्य कारणना योग वडे कार्य सिद्धि थइ शके. अर्थात् कार्यना स्वरूपनो यथार्थ जाणनार कार्यनो अभिलाषी कर्ता, उपादान अने निमित्त कारण वडे कार्य सिद्धि पामी शके. उपादान--जे पदार्थ कार्य सन्मुख थाय तथा तेज संपूर्ण कार्य रुप थाय-कार्य सिद्धिए जेनी हयाति जणाय ते उपादान कारण जाणवू. जेम घटनु उपादान कारण माटी तथा पटर्नु उपादान कारण रु अथवा सूतर, कारण के माटीनो पिंड थाय, पिंडथी स्थास कुसलादि पायो थइ माटीज