Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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सर्वे पर्यायोना भाप कारण तथा ज्ञाता भोक्ता होबाथी आप पूरण ब्रह्म छो. रूप रस गंध स्पर्श संस्थान आदि पुद्गल द्रव्यना कोइ पण पर्यायनो मापने रंच मात्र पण संश्लेष नथी तेथी श्राप अरूपी को. पाप पोताना ज्ञानजन्य आनंदमां सदा लीन छो-तदुरूप छो माटे प्रापर्नु अवलंबन धारण करू ईं. कारण के जेम काष्टना अवलंबने लोदु जलमा तरी जाय तेम हुं श्रापना अवलंघने आ भयंकर भवार्णवमांथी तरी देवमां चंद्रमा समान शुद्ध सिद्ध परमात्म अवस्थाने प्राप्त थईश. ॥ १० ॥
॥ संपूर्ण ॥
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॥ अथ षष्ठम श्री स्वयंप्रभ जिन स्तवनं ॥ मो मनडो हेडाउ हो मिसरि ठाकुरो महदरो
॥ एदेशी॥ स्वामी स्वयंप्रभने हो जाउं भामणे हरखे वार हजार ॥ वस्तुधरम पूरण जसु नीपन्यो भावकृपा किरतार ॥ स्वामी० ॥ १॥
अर्थः-महान् अखूट वैभवधारी इंद्र चंद्र चक्रवर्ना आदिना समूहवडे पण वंदनीक, स्वयं बुद्ध,