Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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॥ अरिहा पदकज अरचीये, सलहीजे. ते हथ्थ जिनवर ॥ प्रभु गुण चिंतनमें रमे, तेहज मन सुकयथ्थ जिनपर ॥ श्री० ॥३॥
अर्थ:-अनादि कालथी आत्म साम्राज्यने कबजे करि राखनार मोहादि दुष्ट शत्रुउंने जेमणे अति तिक्षण ज्ञान बाणा वडे गतःप्राण निवा करया छे एहवा हे श्री अरिहंत रूषभानन भगवंत! माहरा मन मधुकरने अत्यंत विश्रामना स्थान, शुद्धास्म अनुभूति परिमलथी भरपूर आपना चरण कमलने, जे हाथ घडे अंचे पूजें तेज हाथ सत्य साभकारी समज छं. तथा हे प्रभु ! शरद रूतन पूर्ण चंद्र समान प्रल्हादक शांति प्रापनार अापना अनंत निर्मल परम पवित्र गुण समूहना चिंतन मननमा जे मन रमे, प्रमोद सहित वर्ते तेज मन सुकृतार्थ-सर्व अथेनी सिद्धि करनार मार्नु छु. पण जेम हरिणने तेना कान मनोज्ञ स्वरमा लुब्ध करी जालमा फसावी शस्त्र बड़े प्राणनो वियोग करावे छे तथा पतंगने जेम तेना नेत्रो मनोज्ञ वर्णमां मोहित करी अग्निनी ज्वालामां तेना देहने भस्मीभूत करावे छे तथा मधुकरने तेनी घ्राणेंद्रि कमलनी