Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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दर्शन चारित्रनी वृद्धि तथा स्थिति करवामां प्रवर्तावां तथा " लिषयादिक परिहार ” अर्थात् थीणा, सारंगी, दुंदुभी, विगेरे घाजीत्र तथा मेना, पोपट, स्त्री, किंनरी मादिना ललिता मनोहर स्वर ते श्रवणइंद्रिनो विषय, तथा स्त्री पुरुष पशु पक्षी बालक बाग बगीचा तथा मनोहर श्रावास विगेरेना चित्र विचित्र मनोज्ञ वर्ण तथा घाट से नेत्रइंद्रिनो विषय, तथा पारिजातक, कुंद, कमल, मालति, गुलाव, अगर, तगर, चंदन, केशर, मलयागर विगेरे पदार्थोनी मनोज्ञ सुगंध ते घ्राणेंद्रिनो विषय, तथा स्वादीम, खादीम, पेय श्रादि वस्तुना मनोज्ञ मधु. रादि स्वाद् ते जीव्हाईद्रिनो विषय, तथा स्त्री पुरुषादिनां मनोहर अंग तथा शय्या प्रासन विगेरे पदार्थोना मनोज्ञ स्पर्श ते स्पशेनिनो विषय ए पंचेंद्रिन' विषयोनो स्याग करवो अर्थात् ते विषयो ने इष्ट रम्य भोग्य सुहकर जाणी तेश्रोमां राग, कामना, मूर्छा करवी नहि, प्राप्त स्वाधीन तथा भोगववानुं सामथ्र्य होवा छतां पण ते विषयादिने स्वभावाचरणथी चकवाना हेत तथा दाखना निदान जाणी तेओनो परिहार करवो ते साचो त्याग छे. पण नहि मलवाथी न भोगवq ते कई स्याग नथी,