Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
View full book text
________________
५४
37
अर्थ :- हे सुजात स्वामी ! सर्वे स्वपयपर्नु कारण द्रव्य हे पण द्रव्यनुं कारण अन्य द्रव्य होइ शके नहि तैथी श्राप स्वयं सिद्ध हो. स्वयं बुद्ध छो, सर्व पर - द्रव्यनी कामनाथी रहित परम संतुष्ट छो, तथा तद्रिय अत्र्याबाध, अनुपम, निरूपचरित, स्वाधीन, अपृथग्भूत, अनंत, सहज, श्रात्म सुखना निरंतर भोक्ता, अनुभव लेनार हो, सुखात्मा हो, उक्तंच '' जादो सयं स चेदा, सवण्डू सव्व भोग दरसीय | पप्पोदि सुहमतं, अव्वावाहं सगम मुत्त || माहरा चित्तने सुहंकर बाग्या छो, अनंत गुणना निधान आप स्वजातिनुं दर्शन धत अपूर्व आनंद रूप जल वडे माहरू चित्त सरोवर भरपूर थयुं, अज्ञान कषायना पात्र पर द्रव्यादिनी चाह दाहमां निरंतर प्रज्वलित थतां शुद्धात्म अनुभव रूप सुगंधथी रहित हरिहरादि कुदेवोने करीरादि वृक्षोनी पेठे त्यागी शुद्धात्म अनुभव रूप अनंत सुगंधथी भरपूर श्रापना पद कमलमां माहरू मन मोहित थयुं छे, ह्यांधी रंच मात्र पण खसवा चाहातुं नथी; माटे हे जिनश्वर । जगत् त्रयमां श्रापज भव्य जीवोना मन मोहन छो. जे अपे अनादि कालधी लागेला आत्म गुण रोधक ज्ञाना